मृदु रिश्तों के झंकार

मृदु रिश्तों के झंकार 

भगवन! देखो तो तुमने यह
कैसा संसार बसाया है?
लोभ मोह में जग डूबा है,
अपने खून ने अपनों को सताया है!

निकल गए मेरे सपने अनंत
सावन भी बीत गया
किन्तु प्रफुल्लित,
अपनों ने कभी मुझे होने न दिया

कलियुग का कौशल दिखलाने को
भगवन आपने ऐसे रिश्ते बनाएँ हैं
या निज कर्मों के लेखा जोखा
ने मुझे ऐसे अपनों से मिलवाए हैं

प्रभु, मार ही डालो मुझको
या मेरे जीवन को हरा भरा कर दो
कहते लोग अहा! तुमने कलयुग
में भी सतयुग का रिश्ता पाया है ।

उंगलियों से छेड़ कर मृदु रिश्तों के
झंकार छेड़ता था जो परिवार
बिखर कर बना वो आँसूओं का धार
बड़ा निठुर है ये उलझनों का जाल

माता पिता रहे न जिनके
सब भाई बहन स्वार्थ में डूबे उनके
शुष्क हुए सब रिश्ते नाते
अब बहुओं में बड़ी ढिठाई है।

अतुल तुम्हारे मानव की
इससे ही जग का शोभा था
अपने खून के रिश्तों को
जिसने इधर- उधर से नोचा है।

कविता ए झा
शिक्षिका, कवयित्री, लेखिका
नवी मुंबई
महाराष्ट्र
8692086792

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